मैं कोलकाता में नौकरी के सिलसिले में आया, पर मेरे पास रहने की कोई जगह नहीं थी। सूत्रों के सहारे, बिड़ला समूह के ओरिएंट पंखाकल से सटी मजदूर बस्ती घोरबीबी
लेन पहुँचा। रहने के लिए घर तो नहीं मिला लेकिन विनोद के कारण मेरा मन रम गया। विनोद के पास पंखाकल के गेट के सामने ही चाय की एक नन्ही-सी गुमटी थी जिसमें वह
चाय, पावरोटी की दुकान चलाता था। दिन भर मजदूरों को चाय-पावरोटी बेच कर रात में वहीं बोरे पर सो जाता था। घर विनोद के पास भी नहीं था। धीरे-धीरे मुझ पर यह रहस्य
उजागर हुआ कि बीस-बीस साल से वहाँ रहनेवाले कई लोग बिना घर के ही रह रहे हैं। मुझे बल मिला। पास का सुभाष सरोवर, जिसमें स्नान आदि पर तब प्रतिबंध नहीं था, और
विनोद मेरे ये दो संबल थे।
कोलकाता के लोगों में अखबार पढ़ने का व्यसन-सा है। हिंदी का एक अखबार विनोद की चाय दुकान पर भी आता था। जिन्हें अखबार पढ़ना आता था वे खुद भी उलट-पुलटकर देख
लेते थे और जिन्हें नहीं आता था वे दूसरे के मुँह से देश और देस के बारे में सुन लेते थे। वहाँ रहते हुए धीरे-धीरे समाचार बाँचने का मुख्य दायित्व मुझ पर आ गया।
समाचार विश्लेषण का भी काम करना पड़ता था। उन्हें सुनना और सुनाना दोनों ही अच्छा लगता था। कई बार तुलसी और कबीर ही नहीं निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध आदि के
काव्यसार का भी प्रसंगानुसार प्रयोग कर उसके प्रभाव को देख मन पुलकित होता था।
बुधराम - इतना ही नाम मालूम था उसका। राजस्थान के पिलानी का रहनेवाला बुधराम बिड़ला जी के गाँव के होने के कारण अपने को कुछ खास ही मानता था। समाचार विश्लेषण के
क्रम में मजदूर, मालिक, पूँजीवाद, हड़ताल, लॉकआउट पर भी चर्चा होती थी। यह तो बाद में एहसास हुआ कि पूँजीपति, खासकर बिड़ला जी का संदर्भ आते ही वह अधिक चौकन्ना
हो जाता था। साथ रहते हुए यह बात समझ में आने लगी कि वह असल में बिड़ला जी की तरफ से सुनता था और कई बार खुद को अपने अवचेतन में बिड़ला जी से जोड़ ही नहीं लिया
करता था, बल्कि अपने को प्रबंधन की नीतियों के लिए जवाबदेह भी मान बैठता था। किंतु मजदूर होने का बोध उसे बिड़ला जी से बहुत देर तक तादात्म्य की स्थिति में रहने
नहीं देता था।
गरमी जा रही थी और बरसात आ रही थी। बाहर सोना अधिक कष्टकर हो गया था। लोग वर्षा से बचने के लिए आस-पास के अपने परिचितों के यहाँ विपत्ति में सिर छुपाने की जगह
ठिकियाने के उपक्रम में लग गए थे। लेकिन मैं कहाँ जाता? ऐसे में एक दिन बुधराम ने कहा - मेरे साथ रह सकते हो, लेकिन एक शर्त्त है कि मेरे घर में कुछ खाओगे नहीं।
वैसे भी मैं होटल में ही खाया करता था, सो अंतत: राय बनी कि मैं बुधराम जी के साथ ही रहूँ। अंतत: मेरी धूनी बुधराम जी के यहाँ रम गई।
बुधराम के साथ वहाँ रहते हुए एक ऐसी घटना घटी जिसने मेरे मन पर गहरा असर डाला। उस दिन बहुत पानी पड़ा था। गली में जाँघ भर पानी जमा हुआ था। जब काम से वापस आया
तो पूरी तरह भींग गया था। होटल के खाना से मुझे अरुचि हो गई थी। काम से लौटते समय बाजार से डेढ़ सौ ग्राम चिउरा और एक आम खरीद लिया करता था, उन दिनों रात का यही
स्थायी भोजन हो गया था। भारी बरसात में उस दिन वह अवसर भी बह गया था। ठिकाने पर पहुँचकर पाया कि बुधराम बहुत दत्त-चित्त होकर शुद्ध घी में पराठे सेंक रहे हैं।
बरसात की गंध में देशी घी के गंध के मिल जाने से वातावरण मह-मह हो उठा था। मेरी हालत देखकर बुधराम ने कुछ कहा नहीं; वह पूरी एकाग्रता से पराँठे सेंकता रहा। मैं
भी खामोश था। बुधराम भी खामोश। अंत में बत्ती बुता कर बुधराम सोने की तैयारी करने लगा तो मैंने पूछा - अरे बुधराम, खाना नहीं खाना है क्या? बुधराम ने संक्षिप्त
उत्तर दिया, नहीं। मेरे यह कहने पर कि जब खाना नहीं था तो बनाया ही क्यों? बुधराम ने जो उत्तर दिया वह मेरे जीवन में हासिल शिक्षा का सार है। उसने कहा कि अपने
प्रण के कारण मुझे खिला तो नहीं सकता है, लेकिन मेरे साथ भूखा जरूर रह सकता है।